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ऐलान गली जिन्दा है

चन्द्रकान्ता

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :163
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2500
आईएसबीएन :8126709014

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कहा गया है कि अगर पृथ्वी पर कहीं स्वर्ग है तो वह कश्मीर ही है और ऐलान गली जिन्दा है उपन्यास इसी स्वर्ग पर हाशिये पर दरिद्रता, अज्ञान, और जीवन-संघर्षो को अन्तरंग विवरणों के साथ उजागर करता है। जहाँ आज धर्म, जाति भाषा के नाम पर आदमी-आदमी के बीच दीवारें खड़ी की जा रही हों, वहाँ ऐलान गली के अनवर मियाँ, दयाराम मास्टर, संसारचन्द्र आदि लोग हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिक सौहार्द के प्रतीक बनकर उभरते हैं।

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

कहा गया है कि अगर पृथ्वी पर कहीं स्वर्ग है तो वह कश्मीर ही है और ऐलान गली जिन्दा है उपन्यास इसी स्वर्ग पर हाशिये पर दरिद्रता, अज्ञान, और जीवन-संघर्षो को अन्तरंग विवरणों के साथ उजागर करता है। जहाँ आज धर्म, जाति भाषा के नाम पर आदमी-आदमी के बीच दीवारें खड़ी की जा रही हों, वहाँ ऐलान गली के अनवर मियाँ, दयाराम मास्टर, संसारचन्द्र आदि लोग हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिक सौहार्द के प्रतीक बनकर उभरते हैं। दूसरी ओर बेरोजगारी के अंधकार में पल रही युवा पीढ़ी है, जो रोजगार का तलाश में बड़े शहरों की दौड़ रही है। अवतार ऐसी ही युवा पीढ़ी का प्रतिनिधि चरित्र है, जिसे अजीविका के लिए मुम्बई जैसे महानगर में जाना पड़ता है। महानगरीय सुविधाओं और चकाचौंध के बीच वह खुद को अजनबी और अस्तित्वहीन महसूस करता है, उसके जेहन में ऐलान गली प्यार के समुद्र की तरह पछाड़े मारती है।
ऐलान गली के निवासियों के आपसी सम्बन्धों के विविध आयामों को इस उपन्यास में इतने विस्तार और सूक्ष्मता से चित्रित किया गया है कि एक समूचे समाज का रूप उभरकर सामने आता है। वस्तुतः अपने तमाम पिछड़ेपन के बावजूद ऐलान गली वहाँ के प्रवासियों और निवासियों के दिल-दिमाग में उसी तरह जिन्दा है, जिस तरह फूलों में सुगन्ध।
कुन्दन मूर्ख न था। न ही घुन्ना था। वह माता-पिता की आकांक्षाओं के संसार में पराए व्यक्ति की तरह, अटपटा महसूस करता था। वह उसका संसार नहीं था। वह अपनी ही दुनिया में वितरण करता था पिता की महात्वकांक्षाओं ने अकारण ही उसमें हीन भावना भर दी थी। गली के इतिहास और दर्शन से उसे जन्मजात चिढ़ थी। सुबह से शाम तक दूसरो की खुशियों और अपनी परेशानियों के अन्तहीन सिलसिले में व्यक्त और त्रस्त लोगो को हाथ, आह, छिः थू और कानाफूसियों से कभी तो फुरसत मिलती। अलाँ ने क्या किया, फलाँ ने क्या खाया? रत्नी के घर आज कौन घुसा, संसारचन्द्र पुरोहित के घर में पूड़ी प्रसाद का नाश्ता कितने दिन चला? अर्जुननाथ की तिजोरी में कितनी पीढ़ियों का अल्लम-गल्लम पैसा जमा है? रूपा पर माँ का रंग चढ़ रहा है या नहीं ? यहाँ तक की विचारे मौलवी की दिल की भी खोज-खबर जारी रहती, क्या पता कब किस हसीना पर दिल लुटा बैठे। बीमारों की दवा-दारू करते-करते खुद ही मरीज न बन जाए। कलाम ऐसे, और ऊपर से तुर्रा यह कि नयी पौध बिगढ़ रही है, उसका भविष्य केवल ये बुजुर्ग लोग सँवार सकते हैं।

 

‘बहिश्त की उन अँधेरी गलियों को जिनकी कीचड़ में गाहे-ब-गाहे कमल के फूल खिलते हैं।’

अपनी बात-आपके साथ !

 


‘अर्थान्तर’, ‘अन्तिम साक्ष्य’ और ‘बाकी सब खैरियत है’ के बाद मेरा यह नया उपन्यास। जब तक कोई भी कृति कमोबेश एक सम्पूर्ण आकार ग्रहण नहीं करती, एक अजाने, अचीन्हे अपराध की-सी मानसिकता तकलीफ देने लगती है। अधूरे-अधबने शिशु को जन्म देनेवाली माँ का-सा अपराध-बोध सालने लगता है। क्योंकि सम्पूर्णता का दावा कोई भी रचनाकार नहीं कर सकता, फिर भी यह सच है कि अपूर्णता की तकलीफ मुझे सालती है।
यों मेरे विभिन्न उपन्यासों की पृष्ठभूमि या मानसिकता जिन धरातलों पर उभरी है, सत्य की खोज में संवेदनाओं वे अहसासों के विभिन्न आयामों को उकेरती रही है, परन्तु ‘ऐलान गली जिन्दा है’ लिखते समय मुझे एक अलग-सा बोध हुआ। लगा, कि कुछ ऋण ऐसे भी होते हैं, जिन्हें चुकाए बिना अपना ही मानस मुक्त नहीं होता।
उन दिनों एक बोझ-सा मुझे घेरे रहता था। कुछ कहने को बेताब मेरा अन्तस शब्द ढूँढ़ रहा था। पर जो मैं कहना चाहती थी, उसे महज कुछ शब्दों में बाँधकर ही नहीं, बल्कि स्थितिखंडों, बिम्बों और चित्रों के माध्यम से सम्प्रेषित किया जा सकता था। वह किसी एक का दर्द नहीं था। एक पीढ़ी का भी नहीं। वह तो कई पीढ़ियों का एक साथ रहते-जीते सम्पूर्ण परिवेश का दर्द था, जो ग्लेशियर की तरह जमकर मेरे सीने पर बैठ गया था। इससे मुक्त होना कतई लाजमी था।
मैं जानना चाहती थी, आखिर ‘ऐलान गली’ मुझे क्यों खींचती है ? सही है कि वहीं कहीं आसपास मेरा पहला रुदन गूँजा था। मेरे डगमगाते पाँवों के आड़े-मेड़े निशान उसी मिट्टी पर ठप्पे की तरह अंकित हो गए थे। मेरे भीतर उगते गुलाबी रंगों और खिलती कलियों की चटकन की गवाह वहीं की हवाएँ थीं। किसी शाम झील की थिरकती छाती पर अकेले शिकारे में बैठी मैं और मेरे थके उदास स्वर को झील के लहरीले शैवालों का सहमकर देखना और ललाई चपल लहरों का किलककर दुलारना। वे उगती उम्र के रंग, बहिश्त के उजले रंगों में उकेरना किसे अच्छा नहीं लगता ? स्वर्ग की बात, यों भी, जिन्दगी के आसपास उगते नरक की यातनाओं को कम करने का एक खामखयाल ही सही, कुछ पल मन और ज़हन को भुलावे में तो रखती ही है। मुझे भी शायद स्वर्ग के नजारों के बारे में ही लिखना चाहिए था, लेकिन मैंने ‘ऐलान गली’ को चुना। ऐलान गली, जहाँ अगर कहीं हरियाली थी तो मँगलू के आँगन में खड़े शहतूत के पेड़ पर और झील का विस्तार लोगों के दिलों में। जहाँ दिन ढले ही इतना अँधेरा छा जाता, लगता ज्यों अँधेरे के भूत बसते हों; जिस अँधेरे में रात को बापू के साथ मन्दिर से लौटते अवतारे को हर मोड़ पर काले कम्बलवाले चोर दुबके हुए नजर आते। जहाँ कचरा है, सीलन है, कीचड़ है। जहाँ मुँहफट रत्नी को अनेक शिकायतें हैं, दुख है, क्रोध है और जहाँ सदियों पुराने मूल्य-मान्यताओं की लीक पर आँख-कान मूँदकर चलनेवाली अरुन्धती-सी ‘साफ-पाक-दामनवाली’ धर्मभीरु औरतें हैं।
इस गली में किसी के ऋण कभी नहीं चुकते। कोई अपने लिए नहीं जीता। अगर कोई ऐसा है तो उसे माफ नहीं किया जाता। ताउम्र दूसरों का ऋण उतारने के लिए जिया जाता है, फिर भी ऋण नहीं चुकते। पीढ़ी-दर-पीढ़ी उनका बोझ ढोया जाता है और आश्चर्य तो यह कि आज के बदलते युग में भी इसे धर्म, कर्तव्य और नियति कहकर शिरोधार्य किया जाता है।
यहाँ औसत लोग रहते हैं-घोर संसारी, जिनके लिए छल-प्रपंच, सच-झूठ हँसी-रुदन, सभी जिन्दगी की ठोस-अनिवार्य सच्चाइयाँ हैं। और संसारचन्द्र जैसे पुरोहित, जो श्लोकों-पाठों से दिन की शुरुआत करते हैं, लेकिन वक्ते-जरूरत मन्दिर का दानपात्र उलटाने से भी गुरेज नहीं करते। और अर्जुननाथ अर्जीनवीस जैसे मूँजी, जो सुबह रोटी का चौथाई भाग कुत्ते को खिलाकर स्वर्ग में निवास करने का विश्वास पाल रहे हैं। लेकिन यह गली ऐसे ही विरोधों और विरोधाभासों में सिर उठाए जी रही है। यही इसकी खूबी है।
इस गली में बहुत कुछ समझ से परे भी था। रीति-रस्म, रंग-ढंग, जीने-जिलाने की तरकीबें, सोचने के तरीके। जिस गली से दूर अवतारा, तेजा आदि युवक छप्पन व्यंजनों में भी घास-फूस का स्वाद महसूस करते हैं, चन्दन जैसे युवक कुम्हलाते फूलों को शबनमी छुअन देकर जिन्दा रखना चाहते हैं, वहीं शामू जैसे युवक नीलकण्ठ बनकर गली का जहर पीने को अभिशप्त हैं। जहाँ हर वर्ष अनेक इंजीनियर, डॉक्टर हाथों में डिग्रियाँ और आँखों में झिलमिलाते सपने लेकर निकलते हैं, कि अचानक उनका आकार घड़ेवाले भूत की तरह इतना बढ़ जाता है कि गली तंग मुँहवाली छोटी-सी मटकी महसूस होने लगती है जिसमें उनका आकार सिमट नहीं पाता। और फिर अपने सपनों को सँजोये, नौकरियों के लिए देश-विदेश भटकते यही युवक चाहे-अनचाहे अनेक प्रश्नों से घिरे, व्यवस्था के शिकार खुद को निरीह महसूस करने लगते हैं।
ऐसे में पगले भूता का प्रश्न मुझे चुनौती-सा झिंझोड़ गया-

    ‘‘कल्हण गनी ते सर्फी, सैराब करि यमि आबन,
    सुय आब सनि बापथ, जहरे हिलाल आस्था ?’’
(जिस आब ने कल्हण, गनी और सर्फी जैसे विद्वानों को जीवन दिया, वही अब क्या हमारे लिए हलाहल बनेगा ?)
हाँ, इस प्रश्न का उत्तर ढूँढ़ना जरूरी था। इसके लिए ‘ऐलान गली’ की जिन्दगियों, उस माहौल का पुनरावलोकन करना जरूरी था और इसी कारण आपको उन औसत, बेढब और विशिष्ट लोगों के बीच ले जाना जरूरी था।
आपने बहिश्त के नजारे बहुत देखे-सुने हैं; अब मेरे साथ बहिश्त की गलियाँ भी देखिए। यहाँ चिनारों की पुरवाइयों-तले बहती झीलें लोगों के सीनों में डोलती हैं, जो बर्फ के ताजोंवाले पहाड़ी सिर गरूर से उठाए रखवालों का धर्म निभाते हैं। इन औसत लोगों में जहाँ संसारचन्द पुरोहित, अर्जुननाथ अर्जीनवीस और भूता जैसे लोग हैं, वहीं कहीं मार्क्स भी हैं, सार्त्र भी, कामू भी तथा गांधी और बुद्ध भी। यहाँ करुणा के स्रोत कभी नहीं सूखते। शायद इसीलिए यह गली जिन्दा है।
लेकिन हाँ ! किसी गलतफहमी में मत पड़िए। मैं आपको कहानी नहीं सुना रही, जिन्दगी दिखा रही हूँ। यों भी कहानी जब जिन्दगी बन जाती है तो खूबसूरती में बदसूरती मिल ही जाती है। तो आइए।
-चन्द्रकान्ता

 



एक

 


ऐलान गली में शाम उतर आई है। एक-दूसरे का सहारा लिये खड़े मकानों के बर्फ ढके सिरों पर ढलते सूरज का अक्स पल-भर के लिए ठहर-सा गया है, ज्यों वितस्ता के बाढ़वाले पानी में गोता लगाए पक्के सयाने सिर गलीवालों के कारनामों पर अनुभवी बुजुर्ग नजर डालने रुक गए हों। ढलते सूरज में ताप की तपन नहीं, उम्र का पक्कापन है, फिर भी तिकोन छतों के किनारे बूँदें चूने लगी हैं, टप-टप-टप ! कहीं-कहीं टिन की छतों पर, बर्फ की दरारों पड़ी चादरों के टुकड़े धप्प-धप्प गली में गिरने लगे हैं और ऊँचे अम्बार बनकर मकानों की खिड़कियों तक ढँक गए हैं। घरों में गृहणियाँ सान्ध्य दीपक के लिए हथेलियों पर रुई की बारीक बत्तियाँ बटने लगी हैं। कुछ देर नन्हे-नन्हे दीपक, अँधेरे को चुनौती देते, दीवटों-खिड़कियों पर टिमटिमाते रहेंगे, फिर धीरे-धीरे धुँधले कुहासीले साये गहरे और गहरे होते काली अमावस के ठस अँधेरे में बदलकर, पूरे कूचे को निगल जाएँगे।
लोगों ने मकान भी क्या बनाए हैं ! अँगुले पर बँगले ! पाँच-पाँच मंजिलों में ऊपर उठते ये मकान ज्यों चाँद की अटारी छू लेंगे। इसी से तो सूरज का गली में झाँकना दूभर हो गया है।
‘‘रात की बात तो रात की, दिन को भी क्या कम अँधेरा रहता है यहाँ ? अँधेरे के भूत बसते हों जैसे गली में !’’
जिस अँधेरे के गलीवाले आदी हो गए हैं, उसी अँधेरे से रत्नी को शिकायत है, दुःख है, क्रोध है !
‘‘अमा रत्नी भाभी ! हमें तो इधर रात को भी अँधेरा नजर नहीं आता ! आँख मूँद के चलूँ तो अपने गरीबखाने से सीधे तुम्हारे दीवानखाने तक पहुँच जाऊँ और वो तुम्हारे अनन्त नागी बूटेदार गब्बे पर पालथी मारकर बैठ जाऊँ फुँदनेवाले तकिये की टेक लगाकर ! हाँ ! भरोसा न हो तो कभी आजमा के देख लो शौक से !’’
दुःख और क्रोध को मजाक-मुस्कराहट से भगाने के तौर-तरीके जाननेवाले अनवर मियाँ को अँधेरे से कोई गिला नहीं ! शिकायत कण्ठ काका को भी नहीं ! वे कहते हैं, ‘‘भई, अँधेरे की कोख से ही तो प्रकाश का जन्म होता है...’’
कण्ठ काका बुजुर्ग हैं, रत्नी उनसे उलझ नहीं सकती ! पर अनवर मियाँ की बात अलग है ! यों भी रत्नी मुँहफट है, आगे-पीछे देखेगी थोड़ी ! फट से बात सीधे मुँह पर मारेगी, ‘‘तुम्हारी तो बात ही निराली है अनवर भाई ! निशात शालीमार की हवाओं से तुम्हें जुकाम हो जाता है, फव्वारों की मीठी आवाज से सिरदर्द ! चश्माशाही का पानी पीने से लोगों की रूह तक ताजी हो जाती है लेकिन तुम्हारे पेट में दर्द ! दीन-जहान से निराले जो हुए।’’
अनवर मियाँ भी हार माननेवाले नहीं हैं। गजब के हाजिरजवाब ! ‘‘सच कही भाभी, सोलहो आने ! हमें तुम्हारी आवाज में ही आबशारों की सदा सुनाई पड़ती है। जो तुम हँसकर बोलो तो रूह ताजी हो जाती है। फिर तुम ही बताओ भाभीजान, क्योंकर जाऊँ गली छोड़कर बागों में रूह ताजा करने ?’’
अब अनवर मियाँ जो भी कहें, सच्चाई को तो झुठलाया नहीं जा सकता।
कन्धे से कन्धा जोड़कर खड़े मकान ! इस घर में क्या हो रहा है, उस घर में क्या पक रहा है ! अलाँ की बहू के लच्छन कैसे हैं, फलाँ की बेटी का चलन कैसा है ! आँगन, खिड़की, रोशनदान, कहीं से भी झाँक-उझककर पता लगा लो, तबीयत हल्की हो जाएगी। जाने क्यों बीच में चार-छह गज जमीन भी न छोड़ी सयाने लोगों ने घर बनवाते वक्त !
आप किसी से यह बात पूछिए तो जवाब हाजिर ! ‘अरे भई, जगह-जमीन की ओट देकर वो बैठे जो एक-दूसरे से लुकना-छिपना चाहें। इधर तो हाल यह है कि आमने-सामने खिड़की न हुई तो एक मकान की चौके की दीवार में चार-छह ईंटे निकाल दूसरे मकान में झाँकने का रास्ता निकाल लो, ऐसा न करो तो पकवानों का आदान-प्रदान कैसे हो ? हारी-बीमारी में, चौखटे में मुँह घुमा, आवाज भर दो तो मजाल है कि घर के तमाम लोग मुसीबतों में दौड़-धूप करने को हाजिर न हो जाएँ।’ इसके अलावा भी कई वजहें हैं, जिनमें महिला वर्ग की चेहमेगोइयों, कनबतियों, खुसुर-पुसुर से लेकर घर की मान-मर्यादा और लिहाज-शर्म की राजदारी भी शामिल है।
अब देखो न, हीमाली की बहू को दूसरे पहर रात दर्द उठी। अब क्या हीमाली मर्दों को जगाकर ढिंढोरा पिटवाती ? ढिंढोरे की बात छोड़ भी दें, तो भी आधी रात थके-माँदे मर्दों की नींद खराब करना भी तो अक्ल-बुद्धि की बात नहीं, मर्द लोग यों भी हो-हल्ला मचाना जानते हैं, बच्चा जनना तो औरतों के बूते का है। तभी न हीमाली ने चौखट में से हल्की-सी आवाज दी सतवन्त को-सतवन्त भागी-भागी गई नूरा दाई के पास। बेचारी वह भी औजारों का बक्सा लिये, उल्टा फिरन पहने आँखें मलती चली आई। चुन्नी बहू के नन्हे पुत्तर ने इयाँ-याँऽऽऽ की पहली रुलाई सुनाई तो हड़बड़ाकर घर के मर्द जगे, भौंचक। ज्यों कोई करिश्मा हो गया हो, वे कोई सवाल करें, इससे पहले औरतें देने लगीं मुस्करा-इतराकर बधाइयाँ !
अब यह सब बातें सुनने में ऊटपटाँग भले ही लगें पर इनका मतलब बड़ा गहरा होता है !
नई-नई मसें भीगे छोकरे इसे दूसरे के मामलों में दखलअन्दाजी, टाँग-घुसाई आदि इत्यादि कोई भी नाम दें, सच बात यह है कि वह पड़ोसी ही क्या जो सुख-दुःख में काम न आए ?
फिर भी अँधेरा है ! रत्नी गलत नहीं है। यह तो यहाँ वाले आदी हो गए हैं रहते-रहते। कोई बाहरवाला आए तो उस बेचारे को दस कदम चलते पाँचेक ठोकरें लग ही जाएँ। कई वाकये हुए भी हैं यहाँ !
एक बार खूबसूरती ढूँढ़ने-देखने का शौकीन, एक निहायत रूमानी जोड़ा, जाने किस जादुई खोजबीन के सिलसिले में इस गली से गुजरा। मास्टरजी के खयाल से वे मार्क्सवादी ग्रुप से जुडे लोग थे, जो लोगों की भीतरी हालत परखने और बहिश्त की गलियाँ कैसी होती हैं, यह देखने आए थे ! ऊँची एड़ी पर कदम-कदम नापकर चलती बीबी फिसलनी कीचड़ पर रपटकर वो गिरी कि पतली कमर सौ बल खा गई। कोई पीच-वीच डाली होगी किसी ने गली में। आदत से मजबूर हैं लोग बेचारे। पता नहीं किसने-खिड़की से झाँककर देखा कि तमाम खिड़कियों के फ्रेम में कई-कई चेहरे जड़ गए, कुछ आँखें चमकीं, कुछ आवाजें खनकीं। बीबी गुस्से और शर्म से यों पानी-पानी हो गई कि साथी का सहारा देने आगे बढ़ा हाथ भी झटक दिया।
बाद में, सुना बीबी के पाँव में मोच तो आई ही थी, सीलन व कीचड़ की गन्ध से उल्टियाँ भी हो गईं। बेचारी ने टिटनेस के टीके लगवाए और आइन्दा बहिश्त की गलियाँ देखने से तौबा की। गुले हौजी ने सभी खबरें गलीवालों को दीं, उसी की नाव में वे शहर की सैर को निकले थे।
गलीवालों ने टिप्पणी की, ‘आसमान ताकनेवाली कोई बीबी होगी, जो भर-दुपहर ठोकर खाकर गिर पड़ी। रही उल्टी की बात, सो कोई शाकाहारी बीबी होगी, ऊ पी, अम पी. से आई हुई। मछली की गन्ध लगी होगी ! मरी फाता भी तो बैठती है पूरी गली में मछलियाँ फैलाकर।’
संसारचन्द पुरोहित ने मुस्कराकर सिर हिलाया, ‘‘अपने मन्दिर में तो बाहर के बड़े-बड़े सेठ-सेठानियाँ शीश झुकाने आते हैं। भेंट-चढ़ावे तो सौ-दो सौ के चढ़ावेंगे, मगर खाएँगे वही दाल-दलिए ! आश्चर्य, परम आश्चर्य ! इनका मेदा इतनी दाल पता कैसे सकता है ?’’
दयाराम मास्टर ने संजीदगी से जोड़ा-‘‘हाँ भई, इधर दाल-दलिएवाले हैं, तो उधर चीन-जापान में, साँप-मेंढक खानेवाले भी हैं। सभी तरह के लोग-बाग रहते हैं यूनिवर्स में ! हवा से हलकोरे खानेवाली बिहारी की नायिकाएँ भी हैं और हम-तुम जैसे सख्त खाल जवाँ मर्द भी।’’
‘‘नाजनीनें कहो मास्टर साहब, नाजनीनें ! लाहौल बिला-कूवत !’’ अनवर मियाँ की आँखे चमक उठीं, ‘‘नाजनीनों की क्या कमी है अल्लाह पाक की बनाई दुनिया में !’’ बात घूम-फिरकर आ गई फिर मोच खानेवाली बीवी पर। ‘‘देखी थी मैंने।’’ अनवर मियाँ बिना तारीफ किए रह न सके, ‘‘क्या मजनूँ की पसली लग रही थी, चार अँगुल से ज्यादा तो कमर थी नहीं। मियाँ लाल बुझक्कड़ उसे सँभाल न पाया। गोड़ मुरुक गया बेचारी का। मास्टर साहब ने उस शाहजादी की बात सुनाई थी ना, उस रीयल प्रिन्सेस की, जो सौ तकियों के नीचे रखी मटर की फली की चुभन भी महसूस करती थी, बस, वैसी ही समझो।’’
महीपे को अफसोस हुआ कि उस नाजनीन, रीयल प्रिन्सेस, वगैरह-वगैरह को देखने में वह चूक कैसे गया।
महिलाओं ने बीवी के नख-शिख वर्णन में कोई रुचि न दिखाकर इतना ही कहा कि कोई आँखों से काम न लेगा, तो ठोकर खाएगा ही। इसमें क्या अनहोनी हो गई। रत्नी ने जरूर एकाध वाक्य जोड़ दिया, ‘‘हुई होगी उल्टी भी और सिरदर्द भी। अपनी गली तो ऐसी ही न्यारी है। दुनिया-भर का कचरा तो फैला रहता है। इधरवालों को दीन-जहान की भलाई-बुराई और ‘पालटिक्स’ से कभी फुरसत मिले, तब न गली की सफाई-गिफाई की तरफ ध्यान जाए। ऊपर से मुआ अँधेरा भर-दुपहर नहीं छोड़ता...’’
यों रात घिरने पर अँधेरा सभी जगह छा जाता है, बड़े बाजार हों, छोटी गलियाँ हों। बाम्बे डाइंग की पारदर्शी काँचवाली ऊँची दीवारें हों, या गणपत किराने की गली में उकड़ूँ बैठी, फूस की छाजन छवाई हट्टी हो, अँधेरा किसी को नहीं बख्शता।
ऊँची पहाड़ियों की गोंद में दुबकी हुई खुशनुमा झील पर भी जब अँधेरा छा जाता है, तो लहरों की रूह काँप उठती है। पानी के भीतर झूमते नरकुल, शैवाल, काली कैनवस के भीतर यों हिलते हैं ज्यों किसी डरे मानुस का धुकधुकाता दिल। भले ही बुलियार्ड के मरकरी बल्ब अँधेरे को चुनौती देते, रात-रात भर जलते रहें। फर्क क्या पड़ता है ! सतह पर काँपती हुई रोशनियाँ उस अँधेरे के सैलाब को क्यों फोकस में लाती हैं।
फिर यह गली ? नंगे आसमान के नीचे ईंट, चूने लकड़ी के खाँचों से बनी रिहायशों से ठूसमठूस। पहाड़ तो पहाड़, यहाँ दूर तक एकाध पेड़ भी नजर नहीं आता। यहाँ उलझे तारोंवाले बिजली के खम्भों में बीसियों बल्ब लगाए जाने के बावजूद, रोशनी की एक दुबली-सी शहतीर भी मुँह दिखाने की हिम्मत नहीं करती। करे भी कैसे ? बिजली के लट्टू खम्भों पर कभी टिकने भी पाएँ, तब न ?
मास्टर दयाराम, अर्जुननाथ अर्जीनवीस के चौथे माले की बैठक में गुफ्तगू करता अपने हमउम्र दोस्तों से कहता है, ‘‘अँधेरा, अँधेरा होता है साहब मौत और अँधेरा ! दोनों हैव्स और हैवनाट्स में फर्क नहीं करते !’’
मास्टर दयाराम सूक्तियों में बात करते हैं, उन्हें अधिकार भी है। गली के पढ़े-लिखे, ज्ञानी-ध्यानी गुरुजनों में उनकी अपनी जगह है, सुरक्षित ! परन्तु बाज़ वक्त, और खास मौकों पर सूक्तियाँ भी अपना अर्थ खोकर उलटबाँसियाँ बन जाती हैं। मास्टरजी इस सच्चाई को नहीं जानते, या हो सकता है जानते हों, पर चार जनों के बीच मानने को तैयार नहीं होते। काइयाँ हैं थोड़े।
मतलब अँधेरे-अँधेरे में फर्क होता है। अँधेरा देखा जा सकता है, पर ऐलान गली में उसे छुआ जा सकता है। बघनखे फैलाए, सशरीर देव-सा, आतंकित करता हुआ इस अँधेरे में भले आदमी तो भले आदमी, चोर-उचक्के भी खौफ खाते हैं। हँसी आती है न सुनकर ? या विश्वास नहीं होता ? अवतारे को भी पहले-पहले विश्वास नहीं आता था, जब वह बहुत छोटा-सा था। पर थोड़ा बड़ा होने पर, रात घिरे जब वह अपने पिता संसारचन्द पुरोहित के साथ मन्दिर के पट बन्द कर घर लौटता, तो कसकर पिता की अँगुली पकड़ लेता। उसे हर दुकान, हर मोड़ पर, रँगे चेहरेवाले भूत से चोर नजर आते। उसकी साँस हलक में घुट-सी जाती। कहीं वह बापू का हाथ छोड़ दे तो वह कोनेवाले मोड़ पर दुबका हुआ, कम्बल में सिर से पैर तक लिपटा, मुस्टण्डा काला चोर उसे दबोच ले, तो ?
अवतारे का छोटा-सा दिल धक्-धक् बजने लगता। टाँगें थरथराने लगतीं। कहने की बात नहीं, पर यह सच है कि कई बार पाजामा भी गीला हो जाता। तब संसारचन्द बेटे को बहादुर बनने की सलाह देते। किस्से-कहानियाँ सुनाते। यह गली किस्से-कहानियों की धनी है। हजार कहानियाँ, अनगिनत घटनाएँ, सुनाने बैठो तो बोलनेवाला तो बोलनेवाला सुननेवाला भी थक जाए पर कहानियाँ हैं मजेदार।
एक ऐसी ही मजेदार घटना बापू ने अवतारे को सुनाई थी। माई की बहादुरी की घटना, जो वर्षों पहले घट चुकी थी। तब अवतारे का जन्म भी नहीं हुआ था। तब से अब तक वर्षों बीत गए। इस गली  में चोर क्या, चोर के बाप की भी हिम्मत नहीं हुई घुसने की !
वह एक यज्ञ अमावस्या, यानी खिचड़ी अमावस्या की रात थी। गृहस्थ घरों में मूँग चावल की, खूब-सा घी डालकर, स्वादिष्ट खिचड़ी बनती है इस दिन। साथ में मछली का झोल, मीट का कलिया, रोगनजोश, वगैरह-वगैरह, अपनी-अपनी रीत के अनुसार। गलीवालों ने भी अपनी-अपनी सामर्थ्य के हिसाब से खिचड़ी बनाई। संसारचन्द की धर्मपत्नी अरुन्धती ने भी मछली, मीट, अचार की फाँक वगैरह से सजी खिचड़ी घास की ईंगुरीनुमा पत्तल पर धरकर दालान में रख दी। घर के किसी कोने अन्तरे में घास की पत्तलों पर खिचड़ी, गृहदेवता के लिए परोसी जाती है। कहते हैं इस रात यक्षराज या गृहदेवता सभी घरों के चक्कर लगाते हैं, जिस घर में सुच्ची खिचड़ी पाते हैं, उस घरवालों से खुश होकर वे प्रसाद पाते हैं और बदले में लक्ष्मी को भेज देते हैं। जहाँ पत्तल नहीं मिलती, वहाँ से वे नाराज होकर चले जाते हैं। फिर लक्ष्मीजी का पदार्पण तो असम्भव ही है, घर की जो दुर्दशा होती है, उसके भी कई अलग किस्से हैं। बहरहाल !
यों दयाराम मास्टरजी खिचड़ी अमावस्या का भी एक अलग ही किस्सा सुनाते हैं। उनका कहना है कि नीलमत पुराण के अनुसार प्राचीन काल में ‘यक्ष’ नाम की डाकू जाति वादी के लोगों को बेहद परेशान करती थी। डाकू कभी भी आकर लूटमार कर जाते थे। एक बार लोगों ने आपस में सलाह-मशविरा करके उन्हें सन्देश भेजा कि लूटमार करने की बजाय पौष अमावस के दिन उनके यहाँ आ जाया करें। जहाँ उनके लिए भोजन आदि का प्रबन्ध होगा। इसीलिए खिचड़ी अमावस्या को वे एक थाली खिचड़ी, मांस, मछली आदि से भरी हुई रख देते थे जिसे यक्ष लोग आकर खा जाते थे। यही प्रथा अभी भी चली आ रही है, पर अब यक्ष नहीं आते, चूहे-बिल्लियाँ आकर पकवान खा जाते हैं।
‘बिल्ली-चूहे आकर पकवान खा जाते हैं’ कहने से संसारचन्द के आस्थावादी मन को ठेस पहुँचती है, परन्तु मास्टरजी पढ़े-लिखे व्यक्ति हैं, इतिहास साइन्स के जानकार, सो उनकी व्याख्या आम आदमी से अलग अजूबी तो होगी ही। फिलहाल कहानी आगे यों है कि उस खिचड़ी अमावस्या की रात संसारचन्द को यजमानों के घर पुजाते आधी रात हो गई। कई-कई घर उन्हें अकेले ही पुजाने-निपटाने पड़ते हैं। आस्था और संस्कारों मण्डित ब्राह्मणों के घर, जो श्लोक, पाठ खुद भी जानते-समझते हैं। सो शुक्लाम्बरदरम् विष्णुम् से आरम्भ कर ओम जय जगदीश हरे तक, यानी गणेश स्तुति से लेकर आरती के आयोजन तक सभी देवी-देवताओं की स्तुति करने के बाद ही यजमान खुश होकर दक्षिणा देते हैं। अरुन्धती पति की व्यस्तता जानती है, सो बच्चों को सुलाकर खुद भी एकाध झपकी लेने के विचार से लेट गई।
अचानक आधी रात के समय नींद में ही अरुन्धती को पाँवों की आहट सुनाई पड़ी। उसने सोचा, जरूर यक्षराज उनके घर पधारे हैं। माँ लक्ष्मी का स्मरण कर उसने मन-ही-मन उन्हें हाथ जोड़े और कान लगाकर देवता की पदचाप सुनने लगी। वह भीतर आए, उन्होंने धीरे से दरवाजा खोल दिया, थप-थप-थप, वो कदम बढ़ा रहे हैं। अब खिचड़ी की पत्तल जूठी करेंगे, अब...। तभी न जाने क्यों अरुन्धती अपनी उत्सुकता पर अंकुश न रख सकी। उसे बड़ी इच्छा हुई यक्षदेवता के दर्शन करने की। कैसा रूप-रंग मण्डित, तेजयुक्त चेहरा होगा ? चार हाथ होंगे कि आठ ? किस हाथ से प्रसाद ग्रहण करेंगे ? वह धीरे-धीरे उठी और दालान की ओर बढ़ने लगी। है बड़ी दिलेर औरत ! लेकिन यह क्या ? यक्षराज को भला उसकी सन्दूकची खोलने की क्या जरूरत पड़ी ? वो तो स्वयं दाता हैं, यह चोरोंवाली करतूत क्योंकर ?
अरुन्धती पढ़ी-लिखी स्त्री नहीं है, फिर भी बुद्धि उसकी कुशाग्र है। उसका माथा ठनका। काले कम्बल में सिर से पाँव तक ढका वह आदमी यक्षराज नहीं हो सकता था। उसे विश्वास हो गया। अरुन्धती चुपचाप कमरे में लौट आई। झटपट संसारचन्द का फिरन पहना। ताखे पर धरा पति का पुराना साफा सिर पर जमा दिया। हुक्का सामने खींचकर जोरों से गुड़गुड की आवाज निकाल कश खींचने लगी। जवा-मखना को वो जोरों की चिकोटी काटी कि वे पहले तो नींद में कुनमुनाए और बाद में भें-भें कर रोने लगे। अरुन्धती ने मर्दाना आवाज निकालकर एक-दो काल्पनिक नौकरों को आवाजें निकालीं, ‘‘महदे, गुलाऽब कहाँ मर गए सबके सब ? जरा हुक्का भर दो, नींद नहीं आ रही।’’
अरुन्धती ने बत्ती जलाई। उठकर फटाक से खिड़की के पट खोल दिए। काली चादर में लिपटा चोर खटर-पटर, और आवाजें सुनकर दरवाजे से भागकर जाने ही लगा था कि अरुन्धती ने उसकी उठी टाँग पूरी ताकत से खींच ली। जब तक चोर अपने को छुड़ाने की कोशिश करे, अरुन्धती ने आव देखा न ताव, झुककर तीखे दाँत उसकी टाँग में गड़ा ही दिए। इधर जवा और मखना पूरी तरह जाग चुके थे और गला फाड़-फाड़कर चोर-चोर की चीख-पुकारें मचाने में जुट गए थे।
हल्ला सुनकर घरों की रोशनियाँ भक्-से जल उठीं। अधनंगे सोए मर्द-औरतें गर्म बिस्तरे छोड़कर खिड़की-दरवाजों पर टँगकर चोर को ललकारने लगे। गली का भाईचारा भी गजब का था। अनवर मियाँ चीख पुकार सुन ऐसी बदहवासी में उठे कि दरवाजे पर पहुँचकर उन्हें ध्यान आया कि मजमे के सामने आने से पहले उन्हें अपनी तहमद बाँधनी चाहिए थी। ऐसे में चोर हड़बड़ी में खिड़की को दरवाजा समझकर लाँघ गया और नीचे पथरीली गली में धम्म से आ गिरा। तीसरी मंजिल की खिड़की से नीचे गली में थड़ की आवाज के साथ। सड़क छूते ही सिर फट गया और दम निकल गया।
बाद में यह किस्सा कोतवाली तक पहुँचते-पहुँचते रह गया। चोर की मृत्यु की खबर गली से बाहर पूरे शहर में फैल गई। लोगों ने जो कहा सो जाने दीजिए, पर चोर की जान गई। यह बुरा हुआ। ब्राह्मण के घर हत्या हो गई। अरुन्धती को प्रायश्चित भी करना पड़ा। लेकिन इसका नतीजा अच्छा ही निकला। शहर-भर के चोरों के दिलों में गली-मुहल्ले का डर बैठ गया, जबरदस्त दहशत !
बाद में सुना गया कि चोरों ने अपनी एक सभा में कहा कि अमुक गली बड़ी मनहूस जगह है- वहाँ जो भी चोर कदम रखेगा, जान से हाथ धोएगा, वहाँ अरुन्धती-सी मर्दमार औरतें बसती हैं।
यह खबर अनवर मियाँ ने ही गलीवालों को दी। यों यह भी सुना गया कि चोरों में बदले की आग भड़क उठी थी। उनके एक सहयोगी की जान चली गई थी, पर जाने कैसे क्या हुआ, अनवर मियाँ ने तो दूसरी ही बात कही। अनवर मियाँ की बात ही अलग है। चोर हो या साधु, दोनों से उसकी सलामअलैकुम और राम-राम ! बड़ा रहस्यपूर्ण व्यक्तित्व है अल्लाह के बन्दे का। उस दिन पूरे आठ घंटे घर से गायब रहा। रात घिरे घर लौटा तो मुहल्ले के चन्द बुजुर्गवारों को अर्जुननाथ अर्जीनवीस की बैठक में बुलाकर बातचीत की, सलाह-मशविरे हुए, और लोगों को चोरों की मजलिस में हुए फैसले की बात सुनाई गई।
 

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